विज्ञान बनाम समाज!
समाज में व्यक्ति के अस्तित्व का घालमेल
समझ में आ रहा है.
इस घालमेल के परिणाम का भी.
परिणाम का स्वरूप
जैसे आकाशगंगा में विचरते तारे
विचरना तारो का उनके आकर्षण और
प्रतिकर्षण का प्रतिफल ही तो है
विज्ञान की सीमितता भी समझ में आ रही है.
विज्ञान केवल विज्ञान से संबंध मात्र होने का
दावा करने वाले लोगों तक ही सीमित और माना भी जाता है.
अतः... विज्ञान की सीमितता का तथ्य क्या
वास्तव में सिद्ध नहीं है.
यहाँ पर आयुर्वेद जैसे विज्ञान की व्यापकता का भी बोध
होता है. जिसमें परिणाम प्रत्यक्ष है; पर उपपत्ति का
अधिकांशतः अभाव है. पर यह मात्र कुछ वैज्ञानिकों के
एलोपैथि तक ही सीमित नहीं है.
आयुर्वेद मात्र कुछ वैज्ञानिकों की क्रम-बद्ध सोच नहीं है.
और जिन वैज्ञानिकों की उम्र मात्र १०० साल है.
आयुर्वेद घर के 'दादा' के सोच एवं विज्ञान है.
यह 'बहुसंख्यक दादा' द्वारा मान्यता प्राप्त करता है.
पीढ़ी दर पीढ़ी. शाश्वतता को पाते हुए.
अतः आयुर्वेद की उम्र हजारों साल आंकी जाती है.
तो एलोपैथी की सिर्फ १०० साल की.
अतः एलोपैथी सिर्फ शिशु अवस्था में ही है पर आयुर्वेद शायद
बुढापे में है जिसका विकास अवरुद्ध हो गया है.
अतः इसका पुनर्जन्म आवश्यक है
0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home