Friday, October 26, 2007

मन के मनोभाव

मन के मनोभाव
सागर की लहरों की तरह
रोक नहीं
बुद्धिगम्य नहीं
मनुष्यता की तथाकथित पहचान
मन के मनोभाव
ओछे भरे लौटे की तरह
झलकता - बहकता सा
रोक नहीं
बुद्धिगम्य नहीं
मनुष्यता की तथाकथित पहचान
मन के मनोभाव

मृग तृष्णा से भटकते हिरन की तरह
अनिश्चित डगर पर विचरण सा ही तो!
तब अंधकार की कोई सीमा नहीं
बुद्धिगम्य नहीं
मनुष्यता की तथाकथित पहचान

एक स्थिति
सागर की लहरों की स्थिरता ही नहीं
ओछा भरा लौटा भरा नहीं
कस्तूरी का मृग तृष्णा के कारण मृग को भान नहीं
यह 'एक स्थिति' क्या संभव नहीं
नहीं
हम सब आकाशगंगा के विचरते नक्षत्र हैं
आकर्षण और प्रतिकर्षण के विचारों से बंधे हुए हैं
तब क्या इस 'एक स्थिति' का संभव हो जाना आवश्यक हैं
नहीं
क्यों?
क्योंकि तब जीवन स्थिर हो जाएगा
क्योंकि मनुष्य का मनुष्य हो जाना ही
नितांत जीवन है

1 Comments:

Blogger Abhishek Pratap Singh said...

Superb
👏👏

3:10 AM  

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