Saturday, October 27, 2007

धूप और छाँव

ओह! समय कितना बदल गया
घनी छाँव का होना
और धूप के तीखा होने में
समय ही कितना लगता है?

पर,
समय तो लगता ही है
घनी छाँव के नीचे निरंतर खेलना
बेखटके क्षणों के बेहिसाब होने की कहानी ही तो है

तो इसलिये
हाँ! समय तो लगता ही है
याद करने में
कि क्षणों का बेहिसाब हो जाना एक कहानी ही तो है

और
हाँ
घनी छाँव में बेखटके ही तो रह जा सकता है
और धूप में?
धूप में आदमी खुद चौकन्ना हो जाता है
अपना बचाव वह खुद ढूँढ ही लेता है
तो
घनी छाँव का वह बेखटकापन
धूप का चौकन्ना पन
दोनों आवश्यक हैं
पर घनी छाँव और धूप के तीखा होने तक
कि समय ही कितना लगता है
का प्रमाद
क्या आवश्यक है
समय तो लगता ही है अवश्य
तो
एक क्रिया होती है
प्रमाद कैसा?
तो हे प्राणी तू उठ
और जलती धूप में
तू तप
और
दीप्तिमान
खरा सोना
बन

अब

क्योंकि प्रमाद अनावश्यक है

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