मैं!!!
'मैं'
फिर प्रश्न सा वही
जाना पहचाना
मैं क्या करूं
आत्मबोध का
जो कि उत्तर है
मैं को जानने का
लेकिन निरुत्तर है
बड़ी शक्तियों के सामने
लेकिन
युद्ध तो फिर भी जारी है
पर हारते जाने के लिए
हार?
जो कि प्रतिबिम्ब है
उस बडे काले कम्बल का
जो कि एक जीव के
अस्तित्व को
काले साए कि तरह
खून कि लालिमा लिए
ढक लेटी है
और 'मैं'
समाप्त हो जाता है
सो जाता है
समाप्त निराशाओं का काला बादल
जो कि दिल धडकाता ही तो है
जबकि सो जाना
एक प्रक्रिया फिर
प्रबल शक्ति के साथ
शक्तिवान की तरह
और जीतूँगा
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