Saturday, October 27, 2007

चीख

एक दृश्य!

अभिव्यक्ति कि चुप्पी
पत्थरों को रौंद रही है
और वह
वहां बैठा
सहृदय
ही सुन सकता है चुप्पी

दूसरा दृश्य!!
और वहाँ आंखों पर पट्टी बांधे मुँह पर टेप लगाए
वह आदमी यंत्रवत बैठा है

कि हम तुम्हारा अपहरण कर रहे
और वह तत्काल नियति मान
साथ चल दे.
चेतावनी से पहले ही आत्मसमर्पण
वह पराभूत है
उसका या तो मानसिक तोष का
पहले ही अपहरण हो चूका है
या वह हार गया है
जीवन की दौड़ में
वह हीनावस्था से दासावस्था की और अग्रसर है
क्यों अग्रसर है वह?
उसने मानसिक तोष का अपहरण क्यों हो जाने दिया?
उसने जीवन की दौड़ में हार क्यों मान ली?
उसने अगर मानसिक तोष का अपहरण हो जाने दिया
तो
वह सीधा था
तथा दुसरे टेढे थे
जीवन की दौड़ में अगर वह हार गया
तो दुसरे उससे योग्य थे
और वह अयोग्य था
पर!
क्या इतने से उसकी नियति अपहरण करने योग्य हो गयी
उफ़! छीख है कि
मानवीयता का वह शास्त्रीय सार्वभौमिक मान कहाँ गया
मानवीयता में क्या सिर्फ दौड़ ही दौड़ शामिल है?
मानवीयता में क्या सीधी लकीर का कोई अर्थ नहीं?
मानवीयता क्या यांत्रिक योग्यता का ही संस्करण है?
अरे! मानवीयता क्यों आक्रांता के ही गुण गाती है?
लेकिन चीख कोई सुनता है कहाँ
चीख एक बेसुरा राग ही तो है
क्यों स्वाद मदमज़ा हो जाने दे
शार्टकट रास्तों का यही दस्तूर है
यही चला रह है
इसी लौहीले दस्तूर को
वह अनघड़ पागल कह रहा है
लेकिन पागल कि कोई सुनता है क्या?
पागल ही तो सुनता है सबकी
अब क्या हो?!
क्या होगा
कि जब कोई चीख सुनता ही नहीं
तो अंततः
यंत्रवत आत्म-समर्पण ही
उसकी नियति है
क्या अब भी अभिव्यक्ति की चुप्पी
पत्थरों को रौंद रही है
ओह! दुखः है कि
पत्थर बहुत बडे हैं
और शीशे सा सदाचरण चूर-चूर हो जाता है
ओह दुखः है कि
वह सहृदय सिर्फ प्रेक्षक है

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