Thursday, January 05, 2006

चुनौती

चुनौती
एक शब्द मात्र .
पर है महासमर में अर्जुन की प्रज्ञा.
उसकी प्रेरणा.
कर्म भी.
कर्म करो हे अर्जुन .
पर कर्म बिना प्रज्ञा के बिना दिशा के ? क्या है संभव?
कर्म के लिए चाहिए चुनौती, प्रेरणा भी.
चुनौती अर्जुन की, प्रेरणा कृष्ण की.
अर्जुन.
महानिश्नात योद्धा.
चुनौती पैदा करने हेतु अर्जुन जैसा महा-निष्णात योद्धा
होना महा-नितांत आवश्यक है.
और कृष्ण. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड.
प्रेरणा देने हेतु सर्वज्ञ महा-योगी होना आवश्यक है.
चुनौती तो मेरे सामने है जिंदगी के महासमर में.
और कृष्ण. यानी प्रेरणा.
तो मेरी प्रेरणा कहा है?
तो हे कृष्ण! तुम कहाँ हो?
कृपया प्रकट होओ .

विज्ञान बनाम समाज!

समाज में व्यक्ति के अस्तित्व का घालमेल
समझ में रहा है.
इस घालमेल के परिणाम का भी.

परिणाम का स्वरूप
जैसे आकाशगंगा में विचरते तारे
विचरना तारो का उनके आकर्षण और
प्रतिकर्षण का प्रतिफल ही तो है

विज्ञान की सीमितता भी समझ में रही है.
विज्ञान केवल विज्ञान से संबंध मात्र होने का
दावा करने वाले लोगों तक ही सीमित और माना भी जाता है.
अतः... विज्ञान की सीमितता का तथ्य क्या
वास्तव में सिद्ध नहीं है.

यहाँ पर आयुर्वेद जैसे विज्ञान की व्यापकता का भी बोध
होता है. जिसमें परिणाम प्रत्यक्ष है; पर उपपत्ति का
अधिकांशतः अभाव है. पर यह मात्र कुछ वैज्ञानिकों के
एलोपैथि तक ही सीमित नहीं है.

आयुर्वेद मात्र कुछ वैज्ञानिकों की क्रम-बद्ध सोच नहीं है.
और जिन वैज्ञानिकों की उम्र मात्र १०० साल है.

आयुर्वेद घर के 'दादा' के सोच एवं विज्ञान है.
यह 'बहुसंख्यक दादा' द्वारा मान्यता प्राप्त करता है.
पीढ़ी दर पीढ़ी. शाश्वतता को पाते हुए.
अतः
आयुर्वेद की उम्र हजारों साल आंकी जाती है.
तो
एलोपैथी की सिर्फ १०० साल की.
अतः एलोपैथी सिर्फ शिशु अवस्था में ही है पर आयुर्वेद शायद
बुढापे में है जिसका विकास अवरुद्ध हो गया है.
अतः
इसका पुनर्जन्म आवश्यक है

वे कौन हैं???

में कौन हूँ यह प्रश्न तो चिर शाश्वत है
लेकिन,
वे कौन हैं
जो मेरे जाने के प्रवाह को रोकते हैं
मैं नहीं जानता
क्या वे भी चल नहीं सकते
साथ साथ

एक परस्पर की उपस्थिति से अनभिज्ञ होते हुए...
मैं चेतनता का ब्रह्माण्ड हूँ.
मुझे मेरे अकेले ब्रह्माण्ड होने के अस्तितित्व
पर कल्पना नहीं करने दे सकते

प्रवाह की सततता अटूट है

कहो भगिनी! विश्लेषण गड़बड़ा गया है.

मुझे याद है!
उसने अपनी बहिन को
सीधी सरल कह दिया था.
आश्चर्य!
उसने बुरा माना था.
मस्तिष्क की मन पर
जीत है यह शायद
सूचनाओं के युग में
स्वाभाविक ही है ऐसा होना.
और कोई भी अपने को अज्ञानी क्यों सिद्ध हो जाने दे?
व्यवहारिकता के मकड़जाल से अनभिज्ञ क्यों सिद्ध हो जाने दे?
कोरा यथार्थवादी जीवन दर्शन.
ठीक है. विश्लेषण ठीक है.
मुझे याद.
एक थे बाबा सेनानी
त्यागी. त्याग दिया सर्वस्व.
त्याग के प्रतिफल से आकांक्षा हीन. बिल्कुल.
दधिची की हड्डी सफलता का सोपान बनी.
कृतज्ञ समाज.
और अस्वीकार कर दिया जाना.
कहा था उन्होने.
त्याग प्रतिफल के लिए नहीं किया था हमने.
बाबा सीधे सरल थे
तल्ख़ होकर कहा था मैंने.
हाँ भगिनी. क्या कहोगी तुम?
सम्पूर्ण मानवीय मनुष्यता के उस अनुपम शौर्य को,
क्या कहोगी तुम?
क्या तुम्हे बुरा नहीं लगेगा?
क्या तुम बुरा नहीं मानोगी?
पता नहीं तुम्हे कैसा लगेगा?
बाबा व्यवहारिकता के मकड़जाल से अनभिज्ञ सिद्ध भी हुए हैं
मुझे मालूम है कि तुम्हे बुरा लगेगा
विश्लेषण गड़बड़ा गया है